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भगवान पार्श्वनाथ की जन्म स्थली : भेलुपुर तीर्थ

भगवान पार्श्वनाथ का इतिहास

Bhelupur
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भेलूपुर (वाराणसी) तीर्थ

जैनधर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लगभग नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व (877 ई.पू.) उग्रवंशी काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और माता वामादेवी के यहां हुआ था। यहां काशी में भगवान पार्श्वनाथ के तीन कल्याणक हुए तथा अंत में श्री सम्मेद शिखर जी से मोक्ष प्राप्त हुआ। 1989 से पूर्व जन्म स्थली पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दौनों जैन मंदिर एक ही प्रांगण में थे अब अलग अलग प्रांगण में भेलुपुर में ही विशाल भव्य मंदिर एवं धर्मशालायें हैं। जन्म स्थल से खुदाई में प्राप्त मूर्तियों के अवशेष तथा अन्य सामग्री यहां के संग्रहालय में सुरक्षित है। भेलुपुर जैन मंदिर वाराणसी शहर के बीचोंबीच स्थित है। यह वाराणसी केंट रेल्वे स्टेशन से लगभग 5 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां यात्रियों को रुकने की प्रर्याप्त व्यवस्था है।


भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परिचय

भगवान पार्श्वनाथ(Parshvanath) जैन धर्म के तेइसवें (23वें) तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया।

भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था।

जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में २४ तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। एक कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण के चाचा अश्वसेन के पुत्र बचपन से ही अहिंसा विचार धारा से ओतप्रोत थे। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैनेश्वरी दीक्षा ली थी।

उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— ‘दयाहीन’ धर्म किसी काम का नहीं’।

भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण

अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ।

भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। ऐसे 23वें तीर्थंकर को भगवान पार्श्वनाथ शत्-शत् नमन्।