श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर

भेलुपुर, वाराणसी
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भगवान पार्श्वनाथ की जन्म स्थली : भेलूपुर तीर्थ क्षेत्र

जैनधर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लगभग नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व (877 ई.पू.) उग्रवंशी काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और माता वामादेवी के यहां हुआ था। यहां काशी में भगवान पार्श्वनाथ के तीन कल्याणक हुए तथा अंत में श्री सम्मेद शिखर जी से मोक्ष प्राप्त हुआ। 1989 से पूर्व जन्म स्थली पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दौनों जैन मंदिर एक ही प्रांगण में थे अब अलग अलग प्रांगण में भेलूपुर में ही विशाल भव्य मंदिर एवं धर्मशालायें हैं। जन्म स्थल से खुदाई में प्राप्त मूर्तियों के अवशेष तथा अन्य सामग्री यहां के संग्रहालय में सुरक्षित है।

काशी में भगवान पार्श्वनाथ के तीन कल्याणक - गर्भ, जन्म एवं तप

भेलुपुर जैन मंदिर वाराणसी शहर के बीचोंबीच स्थित है। यह वाराणसी केंट रेल्वे स्टेशन से लगभग 5 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां यात्रियों को रुकने की प्रर्याप्त व्यवस्था है।

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भगवान पार्श्वनाथ की जीवन दर्शन: काशी

भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें (23वें) तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया।

भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था।

24 तीर्थंकरों की गौरवशाली परंपरा में बनारस नगरी में जन्मे तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व संपूर्ण देश में अत्यंत लोकप्रिय जननायक, कष्ट एवं विघ्न विनाशक आदि रूपों में पूजित और प्रभावक रहा है। नौवीं शती ईसा पूर्व काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और महारानी वामादेवी के घर जन्मे तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो कि इस श्रमण परंपरा के एक महान पुरस्कर्ता थे, तथा अनेक प्राचीन ऐतिहासिक प्रामाणिक स्रोतों से वे एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में मान्य हैं।

पार्श्वनाथ का जन्म उग्रवंश में हुआ था। वाराणसी के महाराजा ब्रह्मदत्त के पूर्वज उग्गसेन, धनंजय, महासोलव, संयम, विस्ततेन और उदयभट्ट के नाम बौद्ध जातकों में मिलते हैं। संभवतः इनमें उग्गसेन से उग्रवंश प्रचलित हुआ होगा। बृहदारण्यक में भी गार्गी और याज्ञवल्क्य में सम्वाद के समय गार्गी ने श्काश्यो वा वैदेहो वा उग्रपुत्रःश् कहकर काशी और विदेह जनों को उग्रपुत्र कहा है। बौद्ध जातक में पूर्व में उल्लिखित नामों में श्विस्ससेनश् का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन का दूसरा नाम प्राकृत साहित्य में (विस्ससेन) विश्वसेन ही विशेष मिलता है। उग्रवंश आदि इक्ष्वाकुवंशी ही थे।

पौराणिक कथानक के अनुसार पार्श्वनाथ के जन्म के पूर्व उनकी माता वामादेवी ने रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह मांगलिक स्वप्न देखे, जिनका फल था-पार्श्वनाथ अपनी मां के गर्भ में आए। अतः वैशाख कृष्ण द्वितीया को विशाखा नक्षत्र में आनत स्वर्ग से समागत पार्श्वनाथ के पूर्व भव के जीव आनतेंद्र को जैसे ही माता ने अपनी पवित्र कोख में धारण किया कि माता प्राची दिशा की भांति कांतियुक्त हो गईं। नौ माह पूर्ण होते ही पौष कृष्णा एकादशी को अनिल योग विशाखा नक्षत्र में जिस पुत्र का जन्म हुआ वही आगे चलकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ बने। वे तीस वर्ष तक कुमारावस्था में रहे। फिर उन्होंने पौष कृष्ण एकादशी के प्रातः तीन सौ राजाओं के साथ मुनि दीक्षा ग्रहण की। संयम और ध्यान साधना में आपको अनेकानेक भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा, किंतु आप उनसे किंचित विचलित हुए बिना तपश्चरण में लीन रहे और लंबी साधना के बाद उन्हें चैत्र कृष्ण चतुर्थी को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। इसकी प्राप्ति के साथ ही अर्हन्त पद प्राप्त करके वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए। आत्म-कल्याण के बाद, अर्थात् जन-जन के कल्याण हेतु काशी, कोशल, पांचाल, मरहटा, मारु, मगध, अवंती, अंग-बंग-कलिंग आदि सभी क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए धर्मोपदेश के द्वारा अहिंसा, सत्य, आदि सिद्धांतों का प्रचार एवं धर्मान्धता, पाखंड, ऊंच-नीच की भावना-आदि दोषों को दूर करने का उपदेश देते और विहार करते हुए हजारीबाग के निकट सम्मेद शिखर पहुंचे जहां प्रतिमायोग धारण करते ही श्रावणशुक्ला सप्तमी की प्रातः अवशिष्ट अघातियों के कर्मों का क्षय करके उन्होंने मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त किया। उनके आदर्शपूर्ण जीवन और धर्म-दर्शन की लोकव्यापी छवि आज भी संपूर्ण भारत तथा इसके सीमावर्ती क्षेत्रों और देशों में विविध रूपों में दिखलाई देती है। इनकी मूर्ति की पहचान मुख्यतः सप्त फणावली और पादपीठ के मध्य सर्प चिह्न से होती है। यक्ष धरणेन्द्र और यक्षिणी पद्मावती का मूर्तांकन भी इनकी मूर्ति की पहचान में सहयोगी बनते हैं।

  • भगवान पार्श्वनाथ का चिन्ह- सर्प
  • स्थान – वाराणसी के भेलूपुर
  • जन्म कल्याणक – पूर्व पौष कृष्‍ण एकादशी
  • केवल ज्ञान स्थान – काशी
  • दीक्षा स्थान – बनारस
  • पिता – राजा अश्वसेन
  • माता – रानी वामादेवी
  • देहवर्ण- हरा
  • भगवान का वर्ण- क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
  • लंबाई/ ऊंचाई- 9 हाथ
  • आयु- 100 वर्ष
  • वृक्ष- अशोक
  • यक्ष – धरणेन्द्र
  • यक्षिणी – पद्मावती
  • प्रथम गणधर – श्री शुभदत्त
  • गणधरों की संख्या – श्वेतांबर परंपरा– 8, दिगंबर परंपरा– 10

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भगवान पार्श्वनाथ की निर्वाण: श्री सम्मेद शिखरजी

अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं।

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काशी परिचय

विश्व के जीवित प्राचीनतम शहरों मे से एक वाराणसी, भारत देश की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक राजधानी है। वाराणसी नगरी का हिंदू, जैन एवं बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व है। सर्वधर्म समभाव की नगरी काशी से जैन धर्म का प्राचीनतम संबंध है। जैन कथा साहित्य में अनेक घटनाक्रमों के अंतर्गत काशी का उल्लेख मिलता है। यहां अनेक जैन राजा भी हुए हैं। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, चंदप्रभ, श्रेयांसनाथ और पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान आदि 15 कल्याणकों की यह पवित्र धर्म भूमि काशी है।

वाराणसी को काशी, बनारस, वाराणसी आदि नामों से जाना जाता है। वाराणसी की प्राचीनता के बारे में मार्क ट्वेन ने कहा था कि बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।

वाराणसी के राजघाट में खुदाई के दौरान प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए। यहां से प्राप्त सबसे प्राचीन जैन मूर्ति छठी शताब्दी की भगवान महावीर की तथा आठवीं शताब्दी की प्राप्त मूर्ति भगवान पार्श्वनाथ की है। यह वर्तमान में राजकीय संग्रहालय लखनऊ में है। इसके अलावा खुदाई से प्राप्त अनेक प्राचीन मूर्तियां सारनाथ के संग्रहालय में भी सुरक्षित हैं। बनारस के जैन समुदाय के बारे में जानकारी पहाड़पुर में मिले गुप्तकालीन ताम्रपत्र (479 ई.) से भी प्राप्त होती है।

वाराणसी में चार तीर्थंकरों की जन्म स्थली निम्न स्थानों पर है जहां पर दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नाय के मंदिर बने हुए हैं।


7 वें तीर्थंकर  सुपार्श्वनाथ भगवान, भदैनी
8 वें तीर्थंकर   चंद्र प्रभ भगवान, चंद्रावती
11 वें तीर्थंकर  श्रेयांसनाथ भगवान, सारनाथ
23 वें तीर्थंकर   पार्श्वनाथ भगवान, भेलुपुर