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नीर गंध अक्षतान पुष्प चारु लीजिये |दीप धुप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजिये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूं सदा | दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ||
सजि आठों द्रव्य पुनीत, आठों अंग नमूं |पूजूं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमूं || श्री चन्द्रनाथ दुतिचंद, चरनन चंद लसें |मन-वच-तन जजत अमंद, आतम जोति जसे ||
आठों दरब सजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढाय |दयानिधि हो,जय जगबन्धु दयानिधि हो || तुम पद पूजूं मन-वच-काय, देव सुपारस शिवपुर राय | दयानिधि हो,जय जगबन्धु दयानिधि हो ||
अनेकांतवाद तथा स्यादवाद हमें सभी के विचारों का सम्मान करते हुए सर्व धर्म समभाव की सीख देता है। बहीं भगवान महावीर का सिद्धांत “जियो और जीने दो” प्राणीमात्र के कल्याण की राह दिखाता है।
भगवान पार्श्वनाथ
जैनधर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लगभग नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व (877 ई.पू.) उग्रवंशी काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और माता वामादेवी के यहां हुआ था। यहां काशी में भगवान पार्श्वनाथ के तीन कल्याणक हुए तथा अंत में श्री सम्मेद शिखर जी से मोक्ष प्राप्त हुआ। 1989 से पूर्व जन्म स्थली पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दौनों जैन मंदिर एक ही प्रांगण में थे अब अलग अलग प्रांगण में भेलूपुर में ही विशाल भव्य मंदिर एवं धर्मशालायें हैं। जन्म स्थल से खुदाई में प्राप्त मूर्तियों के अवशेष तथा अन्य सामग्री यहां के संग्रहालय में सुरक्षित है।
भगवान की जन्मभूमी
भदैनी वाराणसी
आज से हजारों वर्ष पूर्व काशी की इस पुण्य धरा पर सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान का जन्म गंगा नदी के किनारे वर्तमान भदैनी स्थित जैन घाट पर हुआ था।
चंद्रपुरी वाराणसी
जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर भगवान चंदप्रभ का जन्म भगवान सुपार्श्वनाथ के पश्चात् काशी की पवित्र भूमि पर हुआ। दोनों के मध्य कई हजार वर्षों का अंतर था। चंदप्रभ भगवान का जन्म पौष कृष्ण एकादशी को चंद्रपुरी में इक्ष्वाकुवंश के महाराजा महासेन तथा महारानी लक्ष्मणा के यहां हुआ।
सारनाथ वाराणसी
जैन धर्म के 11 वें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी का जन्म सिंहपुरी / सारनाथ में इक्ष्वाकु वंश के महाराजा विष्णु और महारानी नंदा के यहां फाल्गुन कृष्ण एकादशी को हुआ था।
भेलूपुर वाराणसी
जैनधर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लगभग नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व (877 ई.पू.) उग्रवंशी काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और माता वामादेवी के यहां हुआ था।
जन्मभूमी कशी क्षेत्र
परिचय
विश्व के जीवित प्राचीनतम शहरों मे से एक वाराणसी, भारत देश की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक राजधानी है। वाराणसी नगरी का हिंदू, जैन एवं बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व है। सर्वधर्म समभाव की नगरी काशी से जैन धर्म का प्राचीनतम संबंध है। जैन कथा साहित्य में अनेक घटनाक्रमों के अंतर्गत काशी का उल्लेख मिलता है। यहां अनेक जैन राजा भी हुए हैं। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, चंदप्रभ, श्रेयांसनाथ और पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान आदि 15 कल्याणकों की यह पवित्र धर्म भूमि काशी है।
वाराणसी को काशी, बनारस, वाराणसी आदि नामों से जाना जाता है। वाराणसी की प्राचीनता के बारे में मार्क ट्वेन ने कहा था कि बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।
सदी के महान जैनाचार्य
सम्पूर्ण भारत देश और विदेश से जैन धर्म के अनुयाई / धर्मावलंबी यात्रा हेतु लगातार वाराणसी नगरी आते रहते हैं। यात्रीगण कभी श्री सम्मेद शिखरजी जाते वक्त या सम्मेद शिखरजी की यात्रा पूरी करके वाराणसी भगवान पार्श्वनाथ की नगरी में अवश्य आते हैं। इन्ही तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए एक छोटी सी पुस्तिका बनाने का विचार मन में चल रहा था जिसे वर्तमान में मूर्तरुप देने का यह एक प्रयास है।
मंदिर